Friday 27 June 2014

चाणक्य

* मूर्खता दुखदायी होती है। जवानी भी दुख देने वाली होती है, पर किसी और के परिवार में रहना सबसे ज्यादा दुखदायी है। 
* मूर्खता दुखदायी होती है। जवानी भी दुख देने वाली होती है, पर किसी और के परिवार में रहना सबसे ज्यादा दुखदायी है।
* सच्चा परिवार का बांधव वही है, जो उत्सव में, दुख में, राजदरबार में, श्मशान में, दुश्मन का संकट आने पर साथ देता है।
* जिसकी पत्नी दुष्ट, मित्र विश्वासघाती, उत्तर देने वाला नौकर हो और जिस परिवार में सांप रहता हो, वहां मृत्यु अवश्य होती है।
* जिसका पुत्र वश में तथा आज्ञाकारी हो, जो प्राप्त हुए धन से ही संतोष कर लेता हो, उस परिवार में ही स्वर्ग का सुख होता है
* आचार्य चाणक्य के अनुसार अपने परिवार में उदारता, दूसरों पर दया, दुर्जनों से दुष्टता, साधुओं से प्रेम, विद्वानों से सरलता, शत्रुओं से बहादुरी, बड़े लोगों में क्षमा, स्त्री से आवश्यकता पड़ने पर चतुरता का व्यवहार- इन कलाओं में कुशल मनुष्य सदा अपनी मर्यादा बनाए रखते हैं।
 * बिना सोचे-समझे खर्च करने वाला, अनाथ, झगड़ा करने वाला और सब जाति की स्त्रियों का भोग करने के लिए व्याकुल मनुष्य शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है।
 
 
* शोक से रोग, दूध से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस बढ़ता है।
 * धैर्य से दरिद्रता, सफाई से मलिनता सुंदरता में बदल जाती है। शक्ति के कारण कुरूपता भी अच्‍छी लगती है। गर्म करने से खराब भोजन भी स्वादिष्ट लगता है।
 * अर्जित धन का उचित मात्रा में खर्च ही उसका रक्षक है। नए जल के आने पर तालाब के जल को निकालना अच्‍छा है।
 * अपनी स्त्री, भोजन और धन- इन तीनों में संतोष करना चाहिए।

कैसे आया जूता



एक बार की बात है एक राजा था। उसका एक बड़ा-सा राज्य था। एक दिन उसे देश घूमने का विचार आया और उसने देश भ्रमण की योजना बनाई और घूमने निकल पड़ा। जब वह यात्रा से लौट कर अपने महल आया। उसने अपने मंत्रियों से पैरों में दर्द होने की शिकायत की। राजा का कहना था कि मार्ग में जो कंकड़ पत्थर थे वे मेरे पैरों में चुभ गए और इसके लिए कुछ इंतजाम करना चाहिए।

कुछ देर विचार करने के बाद उसने अपने सैनिकों व मंत्रियों को आदेश दिया कि देश की संपूर्ण सड़कें चमड़े से ढंक दी जाएं। राजा का ऐसा आदेश सुनकर सब सकते में आ गए। लेकिन किसी ने भी मना करने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह तो निश्चित ही था कि इस काम के लिए बहुत सारे रुपए की जरूरत थी। लेकिन फिर भी किसी ने कुछ नहीं कहा। कुछ देर बाद राजा के एक बुद्घिमान मंत्री ने एक युक्ति निकाली। उसने राजा के पास जाकर डरते हुए कहा कि मैं आपको एक सुझाव देना चाहता हूँ।

अगर आप इतने रुपयों को अनावश्यक रूप से बर्बाद न करना चाहें तो एक अच्छी तरकीब मेरे पास है। जिससे आपका काम भी हो जाएगा और अनावश्यक रुपयों की बर्बादी भी बच जाएगी। राजा आश्चर्यचकित था क्योंकि पहली बार किसी ने उसकी आज्ञा न मानने की बात कही थी। उसने कहा बताओ क्या सुझाव है। मंत्री ने कहा कि पूरे देश की सड़कों को चमड़े से ढंकने के बजाय आप चमड़े के एक टुकड़े का उपयोग कर अपने पैरों को ही क्यों नहीं ढंक लेते। राजा ने अचरज की दृष्टि से मंत्री को देखा और उसके सुझाव को मानते हुए अपने लिए जूता बनवाने का आदेश दे दिया।

यह कहानी हमें एक महत्वपूर्ण पाठ सिखाती है कि हमेशा ऐसे हल के बारे में सोचना चाहिए जो ज्यादा उपयोगी हो। जल्दबाजी में अप्रायोगिक हल सोचना बुद्धिमानी नहीं है। दूसरों के साथ बातचीत से भी अच्छे हल निकाले जा सकते हैं।

साहसी की सदा विजय

एक बकरी थी। एक उसका मेमना। दोनों जंगल में चर रहे थे। चरते - चरते बकरी को प्यास लगी। मेमने को भी प्यास लगी। बकरी बोली - 'चलो, पानी पी आएँ।' मेमने ने भी जोड़ा, 'हाँ माँ! चलो पानी पी आएँ।'

पानी पीने के लिए बकरी नदी की ओर चल दी। मेमना भी पानी पीने के लिए नदी की ओर चल पड़ा।

दोनों चले। बोलते-बतियाते। हँसते-गाते। टब्बक-टब्बक। टब्बक-टब्बक। बातों-बातों में बकरी ने मेमने को बताया - 'साहस से काम लो तो संकट टल जाता है। धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचाव का रास्ता निकल ही आता है।

माँ की सीख मेमने ने गाँठ बाँध ली। दोनों नदी तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर बकरी ने नदी को प्रणाम किया। मेमने ने भी नदी को प्रणाम किया। नदी ने दोनों का स्वागत कर उन्हें सूचना दी, 'भेड़िया आने ही वाला है। पानी पीकर फौरन घर की राह लो।'

'भेड़िया गंदा है। वह मुझ जैसे छोटे जीवों पर रौब झाड़ता है। उन्हें मारकर खा जाता है। वह घमंडी भी है। तुम उसे अपने पास क्यों आने देती हो। पानी पीने से मना क्यों नही कर देती।' मेमने ने नदी से कहा। नदी मुस्कुराई। बोली- 'मैं जानती हूँ कि भेड़िया गंदा है। अपने से छोटे जीवों को सताने की उसकी आदत मुझे जरा भी पसंद नहीं है। पर क्या करूँ। वह जब भी मेरे पास आता है, प्यासा होता है। प्यास बुझाना मेरा धर्म हैं। मैं उसे मना नहीं कर सकती।'

बकरी को बहुत जोर की प्यास लगी थी। मेमने को भी बहुत जोर की प्यास लगी थी। दोनों नदी पर झुके। नदी का पानी शीतल था। साथ में मीठा भी। बकरी ने खूब पानी पिया। मेमने ने भी खूब पानी पिया।

पानी पीकर बकरी ने डकार ली। पानी पीकर मेमने को भी डकार आई।

डकार से पेट हल्का हुआ तो दोनों फिर नदी पर झुक गए। पानी पीने लगे। नदी उनसे कुछ कहना चाहती थी। मगर दोनों को पानी पीते देख चुप रही। बकरी ने उठकर पानी पिया। मेमने ने भी उठकर पानी पिया। पानी पीकर बकरी मुड़ी तो उसे जोर का झटका लगा। लाल आँखों, राक्षसी डील-डौल वाला भेड़िया सामने खड़ा था। उसके शरीर का रक्त जम-सा गया।

मेमना भी भेड़िये को देख घबराया। थोड़ी देर तक दोनों को कुछ न सूझा।

'अरे वाह! आज तो ठंडे जल के साथ गरमागरम भोजन भी है। अच्छा हुआ जो तुम दोनों यहाँ मिल गए। बड़ी जोर की भूख लगी है। अब मैं तुम्हें खाकर पहले अपनी भूख मिटाऊँगा। पानी बाद में पिऊँगा।

तब तक बकरी संभल चुकी थी। मेमना भी संभल चुका था।

'छि; छि; कितने गंदे हो तुम। मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही है। लगता है महीनों से मुँह नहीं धोया। मेमना बोला। भेड़िया सकपकाया। बगले झाँकने लगा।

'जाने दे बेटा। ये ठहरे जंगल के मंत्री। बड़ों की बड़ी बातें। हम उन्हें कैसे समझ सकते हैं। हो सकता है भेड़िया दादा ने मुँह न धोने के लिए कसम उठा रखी हो।' बकरी ने बात बढ़ाई।

'क्या बकती है। थोड़ी देर पहले ही तो रेत में रगड़कर मुँह साफ किया है।' भेड़िया गुर्राया।

'झूठे कहीं के। मुँह धोया होता तो क्या ऐसे ही दिखते। तनिक नदी में झाँक कर देखो। असलियत मालूम पड़ जाएगी।' हिम्मत बटोर कर मेमने ने कहा।

भेड़िया सोचने लगा। बकरी बड़ी है। उसका भरोसा नहीं। यह नन्हाँ मेमना भला क्या झूठ बोलेगा। रेत से रगड़ा था, हो भी सकता है वहीं पर गंदी मिट्टी से मुँह सन गया हो । ऐसे में इन्हें खाऊँगा तो नाहक गंदगी पेट में जाएगी। फिर नदी तक जाकर उसमें झाँककर देखने में भी कोई हर्जा नहीं है। ऐसा संभव नहीं कि मैं पानी में झाँकू और ये दोनों भाग जाएँ। "ऊँह, भागकर जाएँगे भी कहाँ। एक झपट्टे में पकड़ लूँगा।

'देखो! मैं मुँह धोने जा रहा हूँ। भागने की कोशिश मत करना। वरना बुरी मौत मारूँगा।' भेड़िया ने धमकी दी। बकरी हाथ जोड़कर कहने लगी, 'हमारा तो जन्म ही आप जैसों की भूख मिटाने के लिए हुआ है। हमारा शरीर जंगल के मंत्री की भूख मिटानै के काम आए हमारे लिए इससे ज्यादा बड़ी बात भला और क्या हो सकती है। आप तसल्ली से मुँह धो लें। यहाँ से बीस कदम आगे नदी का पानी बिल्कुल साफ है। वहाँ जाकर मुँह धोएँ। विश्वास न हो तो मैं भी साथ में चलती हूँ।'

भेड़िये को बात भा गई। वह उस ओर बढ़ा जिधर बकरी ने इशारा किया था। वहाँ पर पानी काफी गहरा था। किनारे चिकने। जैसे ही भेड़िये ने अपना चेहरा देखने के लिए नदी में झाँका, पीछे से बकरी ने अपनी पूरी ताकत समेटकर जोर का धक्का दिया। भेड़िया अपने भारी भरकम शरीर को संभाल न पाया और 'धप' से नदी में जा गिरा। उसके गिरते ही बकरी ने वापस जंगल की दिशा में दौड़ना शुरू कर दिया। उसके पीछे मेमना भी था।

दोनों नदी से काफी दूर निकल आए। सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर बकरी रुकी। मेमना भी रुका। बकरी ने लाड़ से मेमने को देखा। मेमने ने विजेता के से दर्प साथ अपनी माँ की आँखों में झाँका। दोनों के चेहरों से आत्मविश्वास झलक रहा था। बकरी बोली --
‘कुछ समझे?'
'हाँ समझा।'
'क्या ?
'साहस से काम लो तो खतरा टल जाता है।'
'और?'
'धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचने का रास्ता निकल ही आता है।'
'शाबाश!' बकरी बोली। इसी के साथ वह हँसने लगी। माँ के साथ-साथ मेमना भी हँसने लगा।

दोस्ती

शहर से दूर जंगल में एक पेड़ पर गोरैया का जोड़ा रहता था। उनके नाम थे, चीकू और चिनमिन। दोनो बहुत खुश रहते थे। सुबह सवेरे दोनो दाना चुगने के लिये निकल जाते। शाम होने पर अपने घोंसले मे लौट जाते। कुछ समय बाद चिनमिन ने अंडे दिये।

चीकू और चिनमिन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। दानों ही बड़ी बेसब्री से अपने बच्चों के अंडों से बाहर निकलने का इंतजार करने लगे। अब चिनमिन अंडों को सेती थी और चीकू अकेला ही दाना चुनने के लिये जाता था।

एक दिन एक हाथी धूप से बचने के लिये पेड़ के नीचे आ बैठा। मदमस्त हो कर वह अपनी सूँड़ से उस पेड़ को हिलाने लगा। हिलाने से पेड़ की वह डाली टूट गयी, जिस पर चीकू और चिनमिन का घोंसला था। इस तरह घोंसले में रखे अंडे टूट गये।

अपने टूटे अंडों को देख कर चिनमिन जोरों से रोने लगी। उसके रोने की आवाज सुन कर, चीकू और चिनमिन का दोस्त भोलू -- उसके पास आये और रोने का कारण पूछने लगे।

चिनमिन से सारी बात सुनकर उन्हें बहुत दुख हुआ। फिर दोनो को धीरज बँधाते हुए भोलू -- बोला, "अब रोने से क्या फायदा, जो होना था सो हो चुका।"

चीकू बोला, "भोलू भाई, बात तो तुम ठीक कर रहे हो, परंतु इस दुष्ट हाथी ने घमंड में आ कर हमारे बच्चों की जान ले ली है। इसको तो इसका दंड मिलना ही चाहिये। यदि तुम हमारे सच्चे दोस्त हो तो उसको मारने में हमारी मदद करो।"

यह सुनकर थोड़ी देर के लिये तो भोलू दुविधा में पड़ गया कि कहाँ हम छोटे छोटे पक्षी और कहाँ वह विशालकाय जानवर। परंतु फिर बोला, "चीकू दोस्त, तुम सच कह रहे हो। इस हाथी को सबक सिखाना ही होगा। अब तुम मेरी अक्ल का कमाल देखो। मैं अपनी दोस्त वीना मक्खी को बुला कर लाता हूँ। इस काम में वह हमारी मदद करेगी।" और इतना कह कर वह चला गया।

भोलू ने अपनी दोस्त वीना के पास पहुँच कर उसे सारी बात बता दी। फिर उसने उससे हाथी को मारने का उपाय पूछा। वीना बोली, "इससे पहले की हम कोई फैसला करे, अपने मित्र मेघनाद मेंढ़क की भी सलाह ले लूँ तो अच्छा रहेगा। वह बहुत अक्लमंद है। हाथी को मारने के लिये जरूर कोई आसान तरीका बता देगा।

चीकू, भोलू और वीना, तीनों मेघनाद मेंढ़क के पास गये। सारी बात सुन कर मेघनाद बोला, "मेरे दिमाग में उसे मारने की एक बहुत ही आसान तरकीब आयी है।

वीना बहन सबसे पहले दोपहर के समय तुम हाथी के पास जा कर मधूर स्वर में एक कान में गुंजन करना। उसे सुन कर वह आनंद से अपनी आँखे बंद कर लेगा। उसी समय भोलू अपनी तीखी चोंच से उसकी दोनो आँखें फोड़ देगा। इस प्रकार अंधा हो कर वह इधर-उधर भटकेगा।

थोड़ी देर बाद उसको प्यास लगेगी तब मैं खाई के पास जा कर अपने परिवार सहित जोर-जोर से टर्-टर् की आवाज करने लगूँगा। हाथी समझेगा की यह आवाज तालाब से आ रही है। वह आवाज की तरफ बढ़ते बढ़ते खाई के पास आयेगा और उसमें जा गिरेगा और खाई में पड़ा पड़ा ही मर जाएगा।

सबको मेघनाद की सलाह बहुत पसंद आयी। जैसा उसने कहा था, वीना और भोलू ने वैसा ही किया। इस तरह छोटे छोटे जीवों ने मिल कर अपनी अक्ल से हाथी जैसे बड़े जीव को मार गिराया और फिर से प्यार से रहने लगे।

अनोखी तरकीब

बहुत पुरानी बात है। एक अमीर व्यापारी के यहाँ चोरी हो गयी। बहुत तलाश करने के बावजूद सामान न मिला और न ही चोर का पता चला। तब अमीर व्यापारी शहर के काजी के पास पहुँचा और चोरी के बारे में बताया।
सबकुछ सुनने के बाद काजी ने व्यापारी के सारे नौकरों और मित्रों को बुलाया। जब सब सामने पहुँच गए तो काजी ने सब को एक-एक छड़ी दी। सभी छड़ियाँ बराबर थीं। न कोई छोटी न बड़ी।

सब को छड़ी देने के बाद काजी बोला, "इन छड़ियों को आप सब अपने अपने घर ले जाएँ और कल सुबह वापस ले आएँ। इन सभी छड़ियों की खासियत यह है कि यह चोर के पास जा कर ये एक उँगली के बराबर अपने आप बढ़ जाती हैं। जो चोर नहीं होता, उस की छड़ी ऐसी की ऐसी रहती है। न बढ़ती है, न घटती है। इस तरह मैं चोर और बेगुनाह की पहचान कर लेता हूँ।"

काजी की बात सुन कर सभी अपनी अपनी छड़ी ले कर अपने अपने घर चल दिए।

उन्हीं में व्यापारी के यहाँ चोरी करने वाला चोर भी था। जब वह अपने घर पहुँचा तो उस ने सोचा, "अगर कल सुबह काजी के सामने मेरी छड़ी एक उँगली बड़ी निकली तो वह मुझे तुरंत पकड़ लेंगे। फिर न जाने वह सब के सामने कैसी सजा दें। इसलिए क्यों न इस विचित्र छड़ी को एक उँगली काट दिया जााए। ताकि काजी को कुछ भी पता नहीं चले।'

चोर यह सोच बहुत खुश हुआ और फिर उस ने तुरंत छड़ी को एक उँगली के बराबर काट दिया। फिर उसे घिसघिस कर ऐसा कर दिया कि पता ही न चले कि वह काटी गई है।

अपनी इस चालाकी पर चोर बहुत खुश था और खुशीखुशी चादर तान कर सो गया। सुबह चोर अपनी छड़ी ले कर खुशी खुशी काजी के यहाँ पहुँचा। वहाँ पहले से काफी लोग जमा थे।
काजी १-१ कर छड़ी देखने लगे। जब चोर की छड़ी देखी तो वह १ उँगली छोटी पाई गई। उस ने तुरंत चोर को पकड़ लिया। और फिर उस से व्यापारी का सारा माल निकलवा लिया। चोर को जेल में डाल दिया गया।

सभी काजी की इस अनोखी तरकीब की प्रशंसा कर रहे थे।

NO SMOKING


NO SMOKING


Wednesday 25 June 2014

“कुछ करके दिखायो” ……..”कुछ करके दिखायो” , ये जीवन मिला है……..इसमें नए सपने सजायो ।



कुछ करके दिखायो” ……..”कुछ करके दिखायो” ,
ये जीवन मिला है……..इसमें नए सपने सजायो

हम आए हैं यहाँ …… अपनी मर्ज़ी से ,
फिर कैसे चले जाएँ ……..खुद की खुदगर्जी से ?

बहुत कुछ है देने को ……इस समाज को ,
बहुत कुछ है लेने को ……इस समाज से

इस मनुष्य योनि में ……अपनी पहचान बनायो ,
जो भी मिला है …..उसे औरों के संग बाँटते जायो

पैदा होने पर ……माँ-बाप सोचा करते हैं ,
हाँ यही करेगा ……..हमारा नाम रोशन

पीड़ी दर पीड़ी चलेगी …..ये कहानी ,
कि करके दिखायो तुम भी …….अपने खून को गरम

रोज़ कहते हैं सभी ………कि दम है तो सामने आयो ,
ताकत से नहीं ……अपने दिमाग से …..कुछ खेल जाओ

आज जो मेहनत करेगा ………वो कल मीठा फल चखेगा ,
जो लड़खड़ा गया पहले कदम पर …….वो उम्र भर फिर चल सकेगा

हर पल-पल में छिपी है ……एक ज्ञान की लम्बी दास्तां ,
उस दास्तां में डूबते जाओ ……..और तय करो अपना रास्ता

बहुत से विद्यार्थी हार जाते हैं …..चलकर कुछ कदम ,
टूट जाते हैं वो अक्सर ……कहते हैं हममे नहीं है दम

हौसले अपने हो बुलंद …..तो हार में भी जीत है ,
ज़ज्बा है कुछ करने का ……तो हर घड़ी में प्रीत है

रोज़ इन शब्दों को सुनकर …..मन अब भरने सा लगा है ,
कुछ करके दिखायोऐसे कटाक्षों से …….ये जिस्म भी अब डरने लगा है

इल्तजा इतनी है समाज से ……..कि हमें भी सोचने का ….एक मौक़ा तो दो ,
हाँ दिखाएँगे करके हम भी कुछ …..थोडा सब्र करना तुम भी सीख लो

करके हम भी दिखाएँगे …..इस युग में चमत्कार ,
मत कहोकुछ करके दिखायो “…….नहीं हैं हम इतने भी बेकार

કાબર અને કાગડો





એક હતી કાબર અને એક હતો કાગડો.

બન્ને વચ્ચે દોસ્તી થઈ.

કાબર બિચારી ભલી અને ભોળી હતી, પણ કાગડો હતો આળસુ અને ઢોંગી.

કાબરે કાગડાને કહ્યું - કાગડાભાઈ, કાગડાભાઈ ! ચાલોને આપણે ખેતર ખેડીએ ! દાણા સારા થાય તો આખું વરસ ચણવા જવું ન પડે અને નિરાંતે ખાઈએ.

કાગડો કહે - બહુ સારું; ચાલો.

પછી કાબર અને કાગડો પોતાની ચાંચોથી ખેતર ખેડવા લાગ્યાં.

થોડી વાર થઈ ત્યાં કાગડાની ચાંચ ભાંગી એટલે કાગડો લુહારને ત્યાં તે ઘડાવવા ગયો. જતાં જતાં કાબરને કહેતો ગયો - કાબરબાઈ ! તમે ખેતર ખેડતાં થાઓ, હું હમણાં ચાંચ ઘડાવીને આવું છું.

કાબર કહે - ઠીક.

પછી કાબરે તો આખું ખેતર ખેડી નાખ્યું પણ કાગડાભાઈનો પત્તો ન લાગે. એ તો પાછા આવ્યાં જ નહિ.

કાગડાભાઈની દાનત ખોટી હતી એટલે ચાંચ તો ઘડાવી પણ કામ કરવાની આળસે ઝાડ પર બેઠા બેઠા લુહાર સાથે ગપ્પાં મારવા લાગ્યા.

કાબર તો કાગડાની રાહ જોઈ થાકી ગઈ એટલે કાગડાને બોલાવવા ગઈ. જઈને કાગડાને કહે - કાગડાભાઈ, કાગડાભાઈ ! ચાલો ને ! ખેતર તો ખેડાઈ ગયું. હવે આપણે વાવીએ.

કાગડો કહે -
ઠાગાઠૈયા કરું છું,
ચાંચુડી ઘડાવું છું,
જાવ, કાબરબાઈ ! આવું છું.
કાબર પાછી ગઈ અને એણે તો વાવવાનું કામ શરૂ કર્યું.

કાબરે રૂપાળો બાજરો વાવ્યો. થોડા દિવસમાં એ એવો તો સુંદર ઊગી નીકળ્યો કે બસ !

એટલામાં નીંદવાનો વખત થયો વળી કાબરબાઈ કાગડાને બોલાવવા ગઈ. જઈને કાગડાને કહે - કાગડાભાઈ, કાગડાભાઈ ! ચાલો, ચાલો; બાજરો બહુ સારો ઊગ્યો છે. હવે જલદી નીંદવું જોઈએ, નહિતર મોલને નુકસાન થશે.

આળસુ કાગડાએ ઝાડ ઉપરથી કહ્યું :
ઠાગાઠૈયા કરું છું,
ચાંચુડી ઘડાવું છું,
જાવ, કાબરબાઈ ! આવું છું.
કાબર તો પાછી ગઈ અને એકલીએ ખેતર આખું નીંદી નાખ્યું.

વખત જતાં કાપણીનો સમય આવ્યો એટલે કાબર વળી કાગડાભાઈને બોલાવવા ગઈ. જઈને કાગડાને કહે - કાગડાભાઈ ! હવે તો ચાલો, કાપણીનો વખત થયો છે. મોડું કાપશું તો નુકસાન થશે.

લુચ્ચા કાગડાએ કહ્યું -
ઠાગાઠૈયા કરું છું,
ચાંચુડી ઘડાવું છું,
જાવ, કાબરબાઈ ! આવું છું.
કાબરબાઈ તો નિરાશ થઈ પાછી ગઈ. અને ખિજાઈને એકલીએ આખા ખેતરની કાપણી કરી નાખી.

પછી તો કાબરે બાજરીનાં ડુંડાંમાંથી બાજરો કાઢ્યો અને એક કોર બાજરાનો એક ઢગલો કર્યો, અને બીજી કોર એક મોટો ઢૂંસાંનો ઢગલો કર્યો. અને એ ઢૂંસાંના ઢગ પર થોડોક બાજરાનો પાતળો થર પાથરી દીધો જેથી ઢૂંસાંનો ઢગલો બાજરાના ઢગલા જેવો જ દેખાય.

પછી તે કાગડાને બોલાવવા ગઈ. જઈને કહે - કાગડાભાઈ ! હવે તો ચાલશો ને ? બાજરાના બે ઢગલા તૈયાર કર્યા છે. તમને ગમે તે ભાગ તમે રાખજો. વગર મહેનતે બાજરાનો ભાગ મળશે એ જાણી કાગડાભાઈ તો ફુલાઈ ગયા.

તેણે કાબરને કહ્યું - ચાલો બહેન ! તૈયાર જ છું. હવે મારી ચાંચ ઘડાઈને બરાબર થઈ ગઈ છે.

કાબર મનમાં ને મનમાં બોલી - તમારી ખોટી દાનતનાં ફળ હવે બરાબર ચાખશો, કાગડાભાઈ !

પછી કાગડો અને કાબર ખેતરે આવ્યાં. કાબર કહે - ભાઈ ! તમને ગમે તે ઢગલો તમારો..

કાગડાભાઈ તો મોટો ઢગલો લેવાને માટે ઢૂંસાંવાળા ઢગલા ઉપર જઈને બેઠા. પણ જ્યાં બેસવા જાય ત્યાં ભાઈસાહેબના પગ ઢૂંસાંમાં ખૂંતી ગયાં અને આંખમાં, કાનમાં ને મોઢામાં બધે ઢૂંસાં ભરાઈ ગયાં અને કાગડાભાઈ મરણ પામ્યા !

પછી કાબરબાઈ બાજરો ઘેર લઈ ગઈ. અને ખાધું, પીધું ને મોજ કરી.